जय दूधेश्वर महादेव
आज तमिलनाडु चिदंबरम मे स्थित भवगन शिव के आदिकालीन प्राचीन मन्दिर थिल्लाई नटराजा आनन्द मन्दिर मे पूज्य गुरुदेव श्रीमहन्त नारायण गिरि जी महाराज श्रीदूधेश्वर पीठाधीश्वर गाजियाबाद अन्तर्राष्ट्रीय प्रवक्ता श्रीपंचदशनाम जूना अखाड़ा ने मंगल आरती मे उपस्थित होकर दर्शन पूजन किया एवं साथ ही मन्दिर के पंडित पुजारियों से भेट करके वहा की व्यवस्था एवं समस्यो से अवगत हुये साथ ही पूज्य गुरुदेव ने मन्दिर के पंडितो को आश्वासन दिया कि केन्द्र सरकार को इस समस्या से अवगत कराकर निश्चित ही मन्दिर की समस्या का समाधान कराने का गुरूदेव ने आश्वासन दिया ,विशेष रूप से प्राचीन जीर्ण हो चुके सैकडो मन्दिरो का जीर्णोद्धार करवा चुके शिव नकराजन स्वामी के सम्मान समारोह मे महाराज श्री तमिलनाडु धर्म चेतना यात्रा पर है ,शिव नकराजन स्वामी जी के सम्मान समारोह के कार्यक्रम मे महाराज श्री विशेष रूप से उपस्थित हुये जिसमे हाजारो की संख्या भक्त उपस्थित रहे शिवनटराजन स्वामी सदैव हिन्दुत्व के लिये कार्य कर रहे है.
वैदिक संस्कृति की रक्षा संरक्षण मे सदैव लगे रहते है ,साथ ही राजस्थान प्रवासी भक्तो ने पूज्य गुरूदेव के तमिलनाडु चिदम्बरम पधारने पर बहुत भव्य स्वागत किया ,नरपत सिंह जी ,आशु सिंह जी ,वीर सिंह जी सराणा,हरि सिंह सराणा ,भूरमल नागौर ,महेंद्र सिंह जी ,विशाल सिंह जी ,जीतू सिंह शेला ,अर्जुन सिंह जी के उद्योग प्रतिष्ठानो पर गुरूदेव ने पगलिये करके आशीर्वाद दिया ,
थिल्लाई नटराजा आनन्द मन्दिर का इतिहास:-
चिदंबरम की कथा भगवान शिव की थिलाई वनम में घूमने की पौराणिक कथा के साथ प्रारंभ होती है, (वनम का अर्थ है जंगल और थिलाई वृक्ष – वानस्पतिक नाम एक्सोकोरिया अगलोचा वायुशिफ वृक्षों की एक प्रजाति – जो वर्तमान में चिदंबरम के निकट पिचावरम के आर्द्र प्रदेश में पायी जाती है। मंदिर की प्रतिमाओं में उन थिलाई वृक्षों का चित्रण है जो दूसरी शताब्दी काल के हैं).थिलाई के जंगलों में साधुओं या ‘ऋषियों’ का एक समूह रहता था जो तिलिस्म की शक्ति में विश्वास रखता था और यह मानता था कि संस्कारों और ‘मन्त्रों’ या जादुई शब्दों के द्वारा देवता को अपने वश किया जा सकता है। भगवान जंगल में एक अलौकिक सुन्दरता व आभा के साथ भ्रमण करते हैं, वह इस समय एक ‘पित्चातंदर’ के रूप में होते हैं, अर्थात एक साधारण भिक्षु जो भिक्षा मांगता है। उनके पीछे पीछे उनकी आकर्षक आकृति और सहचरी भी चलती हैं जो मोहिनी रूप में भगवान विष्णु हैं। ऋषिगण और उनकी पत्नियां मोहक भिक्षुक और उसकी पत्नी की सुन्दरता व आभा पर मोहित हो जाती हैं।
अपनी पत्नियों को इस प्रकार मोहित देखकर, ऋषिगण क्रोधित हो जाते हैं और जादुई संस्कारों के आह्वान द्वारा अनेकों ‘सर्पों’ (संस्कृत: नाग) को पैदा कर देते हैं। भिक्षुक के रूप में भ्रमण करने वाले भगवान सर्पों को उठा लेते हैं और उन्हें आभूषण के रूप में अपने गले, आभारहित शिखा और कमर पर धारण कर लेते हैं। और भी अधिक क्रोधित हो जाने पर, ऋषिगण आह्वान कर के एक भयानक बाघ को पैदा कर देते हैं, जिसकी खाल निकालकर भगवान चादर के रूप में अपनी कमर पर बांध लेते हैं।
पूरी तरह से हतोत्साहित हो जाने पर ऋषिगण अपनी सभी आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करके एक शक्तिशाली राक्षस मुयालकन का आह्वान करते हैं – जो पूर्ण अज्ञानता और अभिमान का प्रतीक होता है। भगवान एक सज्जनातापूर्ण मुस्कान के साथ उस राक्षस की पीठ पर चढ़ जाते हैं, उसे हिल पाने में असमर्थ कर देते हैं और उसकी पीठ पर आनंद तान्डव (शाश्वत आनंद का नृत्य) करते हुए अपने वास्तविक रूप का प्रदर्शन करते हैं। ऐसा देखकर ऋषिगण यह अनुभव करते हैं कि यह देवता सत्य हैं तथा जादू व संस्कारों से परे हैं और वह समर्पण कर देते हैं।
आनंद तांडव मुद्रा
भगवान शिव की आनंद तांडव मुद्रा एक अत्यंत प्रसिद्ध मुद्रा है जो संसार में अनेकों लोगो द्वारा पहचानी जाती है (यहां तक कि अन्य धर्मों को मानाने वाले भी इसे हिंदुत्व की उपमा देते हैं). यह ब्रह्मांडीय नृत्य मुद्रा हमें यह बताती है कि एक भरतनाट्यम नर्तक/नर्तकी को किस प्रकार नृत्य करना चाहिए।
नटराज के पंजों के नीचे वाला राक्षस इस बात का प्रतीक है कि अज्ञानता उनके चरणों के नीचे हैउनके हाथ में उपस्थित अग्नि (नष्ट करने की शक्ति) इस बात की प्रतीक है कि वह बुराई को नष्ट करने वाले हैंउनका उठाया हुआ हाथ इस बात का प्रतीक है कि वे ही समस्त जीवों के उद्धारक हैं।उनके पीछे स्थित चक्र ब्रह्माण्ड का प्रतीक है।उनके हाथ में सुशोभित डमरू जीवन की की उत्पत्ति का प्रतीक है।यह सब वे प्रमुख वस्तुएं है जिन्हें नटराज की मूर्ति और ब्रह्मांडीय नृत्य मुद्रा चित्रित करते हैं। मेलाकदाम्बुर मंदिर जो यहां से लगभग 32 किलोमीटर की दूरी पर है वहां एक दुर्लभ तांडव मुद्रा देखने को मिलती है। इस कराकौयल में, एक बैल के ऊपर नृत्य करते हुए नटराज और इसके चारों ओर खड़े हुए देवता चित्रित हैं, यह मंदिर में राखी गयी पाला कला शैली का एक नमूना है।
आनंद तांडव;-अधिशेष सर्प, जो विष्णु अवतार में भगवान की शैय्या के रूप में होता है, वह आनंद तांडव के बारे में सुन लेता है और इसे देखने व इसका आनंद प्राप्त करने के लिए अधीर होने लगता है। भगवान उसे आशीर्वाद देते हैं और उसे संकेत देते हैं कि वह ‘पतंजलि’ का साध्विक रूप धर ले और फिर उसे इस सूचना के साथ थिलाई वन में भेज देते हैं कि वह कुछ ही समय में वहां पर यह नृत्य करेंगे।
पतंजलि जो कि कृत काल में हिमालय में साधना कर रहे थे, वे एक अन्य संत व्यघ्रपथर / पुलिकालमुनि (व्याघ्र / पुलि का अर्थ है “बाघ” और पथ / काल का अर्थ है “चरण” – यह इस कहानी की ओर संकेत करता है कि किस प्रकार वह संत इसलिए बाघ के सामान दृष्टि और पंजे प्राप्त कर सके जिससे कि वह भोर होने के काफी पूर्व ही वृक्षों पर चढ़ सकें और मधुमक्खियों द्वारा पुष्पों को छुए जाने से पहले ही देवता के लिए पुष्प तोड़ कर ला सकें) के साथ चले जाते हैं। ऋषि पतंजलि और उनके महान शिष्य ऋषि उपमन्यु की कहानी विष्णु पुराणं और शिव पुराणं दोनों में ही बतायी गयी है। वह थिलाई वन में घूमते हैं और शिवलिंग के रूप में भगवान शिव की पूजा करते हैं, वह भगवान जिनकी आज थिरुमूलातनेस्वरर (थिरु – श्री, मूलतानम – आदिकालीन या मूल सिद्धांत की प्रकृति में, इस्वरर – देवता) के रूप में पूजा की जाती है।
हर हर.महादेव
विश्व संवाद संपर्क सचिव अमित कुमार शर्मा श्री दूधेश्वर नाथ मंदिर गाजियाबाद उत्तर प्रदेश