भक्तों के दुख को दूर करने के लिए वे अपने ईष्टदेव भगवान दूधेश्वर से भी टकरा जाया करते थे
गाजियाबादः
सिद्धपीठ श्री दूधेश्वर नाथ मठ महादेव मंदिर में छठे श्रीमहंत के रूप में विक्रम संवत 1707 में श्रीमहंत धनी गिरि महाराज गददी पर विराजमान हुए। वे बहुत ही परोपकारी संत थे। श्री दूधेश्वर नाथ मंदिर के पीठाधीश्वर, श्री पंच दशनाम जूना अखाडा के अंतरराष्ट्रीय प्रवक्ता, दिल्ली संत महामंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष व हिंदू यूनाइटिड फ्रंट के अध्यक्ष श्रीमहंत नारायण गिरि महाराज ने बताया कि महाराज जी किसी के भी दुख नहीं देख सकते थे और भक्तों के दुख को दूर करने के लिए भगवान से भी टकरा जाते थे। एक बार बहुत दुखी विधवा उनके पास आई और रोते हुए बोली कि उसका एकमात्र सहारा उसका बेटा ही है, जो काफी दिन से बीमार है और सब जगह दिखा लिया मगर कोई फायदा नहीं हुआ। अब तो आप ही उसे बचा सकते हैं। इस पर महाराज जी ने उससे कहा कि भगवान दूधेश्वर पर भरोसा रखो और मंदिर के स्वयंभू शिवलिंग का जल अभिमंत्रित कर उसे देते हुए कहा कि पांच दिन यह जल अपने बेटे को भगवान दूधेश्वर का नाम लेकर पांच बार दो। पांचवें दिन वह खुद चलकर यहां आएगा। विधवा ने ऐसा ही किया मगर दो दिन तक बेटे को पांच बार जल पिलाया तो वह रोते हुए श्रीमहंत धनी गिरि महाराज के पास पहुंची तो उन्होंने कहा कि भगवान पर भरोसा रखो।
विधवा के जाने के बाद उन्होंने भगवान दूधेश्वर से कहा कि मैंने आपकी तरफ से गरीब विधवा को उसके बेटे के स्वस्थ होने का वचन दिया, मगर आप तो सुन ही रहे हैं। अतः मैं संकल्प लेता हूं कि जब तक वह युवक स्वस्थ होकर मंदिर नहीं आएगा तब तक अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगा और महामृत्युंजय महामंत्र का जाप करने लगे। श्रीमहंत नारायण गिरि महाराज ने बताया कि ऐसे ही दो दिन बीत गए। तीसरे दिन सांय जब आरती का समय हो रहा था तो एक युवक आकर उनके चरणों में अपना सिर रख दिया। पीछे उसकी मा गरीब विधवा भी थी। विधवा ने महाराजश्री का धन्वाद किया व बेटे के साथ भगवान की आरती में शामिल हुई। एक बार एक चरवाहे को एक सर्प ने डस लिया। अन्य चरवाहे उसे लेकर मंदिर आए तो महाराजश्री ने सर्पदंश वाले स्थान को कमंडल से जल लेकर धौया और अपना मुंह सर्पदंश पर लगाकर विष चूसना शुरू कर दिया। कुछ ही देर में चरवाहे की बेहोशी दूर हो गई और पूरी तरह से स्वस्थ हो गया। मंदिर में मौजूद महात्मा व भक्त यह देखकर हैरान रह गए कि महाराजश्री ने एक चरवाहे के लिए आना जीवन ही दांव पर लगा दिया। महाराजश्री ने बताया कि श्रीमहंत धनी गिरि महाराज ने 36 वर्ष श्रीमहंत रहने के बाद विक्रम संवत 1743 में समाधि ली। मान्यता है कि उनकी समाधि पर जल चढाने से आरोग्यता की प्राप्ति होती है और जीवन में समृद्धि आती है।